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अब सीधा सीधा न चलूँगा तो मेरी दुदर्शा होगी । Mind is the reason for human bondage and salvation

मनः एव मनुंशणां कारणं बंधमोक्षयोः ।  

मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । शुभ संकल्प और पवित्र  कार्य  करने से मनुष्य शुद्ध  होता है, निर्मल  होता है तथा मोक्ष मार्ग पर  ले जाता है । यही मन अशुभ संकल्प और पापपूर्ण  आचरण से अशुद्ध  हो जाता है तथा जडता लाकर संसार के बन्धन में बांधता है । रामायण में ठीक  ही कहा है

निर्मल  मन जन सो मोहि  पावा । मोही कपट छल छिद्र  न भावा ।   

                                    प्रतिदिन  मन के कान  खिचिये    




 यदि आप अपने कल्याण की इच्छा रखते हो तो आपको अपने मन को समझाना चाहिए । इसे उलाहने देकर समझाना चािहएः “अरे चंचल मन ! अब शांत होकर बैठ । बारंबार इतना बहिर्मुख  होकर किसलिए  परेशान करता है ? बाहर क्या कभी िकसी को सखु िमला है ? सुख  जब भी िमला है तो हर िकसी को अंदर ही िमला है । िजसके पास सम्पूर्ण भारत का साम्राज्य  था, समस्त  भोग, वैभव थे ऎसे सम्राट भरथरी को भी बाहर सुख  न िमला और तू बाहर के पदार्थ  के िलए दीवाना हो रहा है ? तू भी भरथरी और राजकुमार उद्दालक की भाती विवेक  करके आनंदस्वरूप की ओर क्यों नहीं लौटता ?” राजकुमार उद्दालक युवावअवस्था  में ही िववेकवान होकर पर्वतो  की गुफाओं में जा-जाकर अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू किसलिए मुझे  अधिक भटकाता है ? तू कभी सुगंध के पीछे बावरा हो जाता है, कभी स्वाद  के िलए तडपता है, कभी संगीत के पीछे आकर्षित  हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर िदया । क्षणिक विषयसुख  देकर तूने मेरा आनंद मय जीवन छीन  िलया है, मझुे िवषय-लोलपु बनाकर तूने मेरा बल, बुध्दि , तेज, स्वास्थ्य , आयु और उत्साह क्षीण कर िदया है ।”  राजकुमार उद्दालक पर्वत की  गुफा में बैठे मन को समझाते है “अरे मन ! तू बार-बार िवषय-सखु और सांसारिक  सम्बन्धों की ओर दौडता है, पत्नी  बच्चे और मित्र आदि  का सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता िक ये सब क्या सदैव रहनेवाले है  ? िजन्हें तू प्रत्येक  जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छूट ही जायेंगे िफर भी तू इस जन्म में भी उन्हीं का िवचार करता है ? तू िकतना मुर्ख  है ? िजसका कभी िवयोग नहीं होता, जो सदैव तेरे साथ है, जो आनंद स्वरुप  है, 



ऎसे आत्मदेव के ध्यान में तू क्यों 
नहीं डूबता ? इतना समय और जीवन तूने बर्बाद  कर िदया । अब तो शांत हो बैठ ! थोडी तो पुण्य की कमाई करने दे ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके मने अधम संकल्प  िकये, कुसगं िकये, पाप िकये ।अब तो बुद्दिमान  बन, पुरानी आदत छोड । अन्तर्मुख  हो ।”  उद्दालक की भांित इसी प्रकार  एक बार नहीं परन्तु प्रतिदिन  मन के कान खींचने चाहिए  । मन पलीत है । इस पर कभी विश्वास  न करें । आपके कथनानुसार मन चलता है या नहीं, इस पर िनरन्तर दृस्टि  रखें । इस पर चौबीसों घण्टे जाग्रत  पहरा रखें । मन को समझाने के िलए िववेक-िवचाररुपी डंडा सतत आपके हाथ में रहना चाहिए  । नीति और मयार्दा के विरुद्ध मन यदि  कोई भी संकल्प  करे तो उसे दण्ड दो । उसका खाना बंद कर दो । तभी वह समझेगा की मैं किसी मर्द के हाथ पद गया हूँ  ि । अब सीधा सीधा न चलूँगा तो मेरी दुदर्शा होगी ।   

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