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नमक का दरोगा


 


प्रित्र मित्रों आज हम आपको विश्व विख्यात लेखक मुंशी प्रेम चंन्द्रजी द्वारा लिखी गयी काहानी सुनाने जा रहा जिससे आपको अपने जीवन को सरलता और र्निभियता से जीने में मदद करेगा इसमे बताया गया है। कि किस तरह समस्या के सामने बिना समझौता के अपने आप को दृढ संकल्पित रखा जाये।

नमक का दरोगा, प्रेमचन्द्र जी कि श्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती है।इसमें कहानीकार ने एक चरित्रनिष्ठ व्यक्ति कि झांकि प्रस्तुत कि है तथा समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और पाखण्ड पर प्रहार करते हुए असत्य पर सत्य कि विजय का दिग्दर्षन कराया है।

ब्रिटिश शासन  का समय था मुंशी प्रेम चंन्द्रजी वंशी धर शिक्षा समाप्त करके नौकरी कि खेाज में घर से चले उनके वृद्व पिता ने उनको कुछ बडी व्यवहारिक सीखें प्रदान कि उनको उनको कहा गया  िकवह औहदे पर ध्यान न देकर उपर से होने वाली कमाइ पर ध्यान दे। वेतन आदमी देता है उपरी कमाई भगवान देता है। मनुष्य कि आवश्यकता  और परिस्थ्तियों के अनुसार उससे व्यवहार करने पर ही धन प्राप्त होता हैं इन व्यवहारिक शिक्षाओं  को गांठ में बाधंकर वंशी धर जीवन में उतरने को चल दिये

वंषीधर अच्छी मुहूर्त में निकले थे अतः उनकी नियुक्ति तत्कालीन नमक- विभाग के दरोगा के पद पर हो गयी परिवारीजन यह समाचार सुन बडे प्रसन्न हुए नमक विभाग रिश्वत के लिये कुख्ययात था।वंषीधर ने अपने आपको बंदाग रखते हुए नौकरी कि । अपनी चरित्र-निष्ठा और परिश्रम से उन्होने सभी अधिकारियो का विष्वास और प्रषंसा अर्जित कि।
एक रात दरोगा वंषीधर अपने कार्यालय में मीठी नीद सो रहे थे कि उनके समीपवर्ती नावों के पुल पर गडगडाहट सुनाई दी। उनको संदेह हुआ और वे एक सिपाही को साथ लेकर घेाडे पर सवार होकर पुल के समीप जा पहुचे वहां पता करने पर पता चला कि उन गाडियो में नमक भरा था।और वे उस इलाके के प्रसिद्व जमीदार पं0 अलोपीदीन की गाडियां थी कर-चोरी के उददेष्य से माल रात में ले जाया जा रहा था दारोगा साहब ने पं0 आलोपीदीन को बुलवाया तो वह बडी निष्चिंतता से पान चवाते हुए उपस्थित हुए उन्होने अपनी वाचालता और प्रभ्ुाता से वंषीधर को प्रभावित करना चाहा उन्होने चालीस हजार तक रिष्वत देनी चाही किन्तु ईमानदारी के नए-नए जोष में डूबे वंषीधर ने तनिक भी विचलित न होते हुए अलोपीदीन को बंदी बनाने की आज्ञा दी।
अलोपीदीन केा गिरफतार करके न्यायालय ले जाया गया । सारा नगर इस अविश्वसनीय दृष्य को देखने उमड पडा प्रायः सभी लोग अलोपीदीन कि निन्दा कर रहे थे। किन्तु न्यायालय में पहुचते ही दृष्य बदल गया। अलोपीदीन के चापलूस वकील और कर्मचारी उनका सेवा के लिये दौड पडे जो धन- वैभव एकांत यमुना तट पर विजयी न हो सका वह न्याय के आलय में विजयी हो गया मजिस्ट्रेट ने उस ईमानदार अधिकारी को फटकारा और उस पर अधिकार मद का आरोप लगाते हुए अपराधी अलोपीदीन को दोष मुक्त कर दिया।
न्यायालय के व्यवहार और पाखण्ड का देखकर वंषीधर को जीवन का एक आघातदायी अनुभव हुआ।उन्होने जान लिया कि बडी-बडी उपाधियांें से विभूषित लम्बी- लम्बी दाडियो और चोगो को धारण करने वाले कितने वडे पाखण्डी और भ्रष्ट हैं।थेाडे ही दिनो बाद वंषीधर को नौकरी से भी हाथ धोना पडा। निराष और हताष वंषीधर घर पहुचे तो बाप ने सिर पीट लिया और पत्नी भी सीधे मुह न बोली

व्ंाषीधर दुखी होकर घर पर बैठे हुए परिवारजनों के ताने सुन रहे थ्ेा कि एक दिन एक सजीला रथ उनके द्वार आकर रूका उसमें से उतरे पं0 अलोपीदीन वंषीधर के पिता अगवानी करने दौड पडे और अपने पुत्र कि ईमानदारी को कोसने लगे पं0 अलोपीदीन ने उनको रोका और वंषीधर जैसा पुत्ररत्न पाने पर बधाई दी । वंषीधर समझ रहे थे कि अलोपीदीन जले पर नमक छिडकने आये हैं। किन्तु जब उन्होने वंषीधर को अपनी समस्त जायजाद का स्थाई मैनेजर बनाने का प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर के लिये सामने रख दिया और हसताक्षर कराए बिना बहां से न जाने का संकल्प भी सुनाया तो वंषीधर की आंखों में आंसू भर आये। नई नौकरी में बढिया वेतन ,बंगला,सवारी और नौकर चाकरो कि भी व्यवस्था थी।

मुंशी वंशीधर,अलोपीदीन के आग्रह को नहीं टाल सके अन्ततः बेईमानी से प्राप्त धन कि सुरक्षा के लिये अलोपीदीन को को एक ईमानदार व्यक्ति कि ही शरण में जाना पडा । सत्य ,असत्य पर विजयी हुआ। 
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