प्रसाद
दोस्तो ये कहानी जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी एक ऐसी कहानी है जिसमें एक स्त्री का प्रेम वर्णित है और देश प्रेम वर्णित हैं किस तरह वह अपने प्रेम और देश प्रेम दोनेा को जीत हासिल कराती है उसी का ये वर्णन है।
कोशल राज्य में प्रतिवर्ष एक राजकीय कृषि उत्सव मनाया जाता था। एक कृषक कि भूमि का चयन करके राजा स्वयं उस पर स्वर्ण निर्मित हल चलाकर बीज-वपन किया करते थे । भूमि के स्वामी को भूमि का कई गुना मूल्य प्रदान किया जाता था और उस भूमि पर राज्य का स्वामित्य हो जाता था। पुरस्कार कहानी इसी उत्सव के साथ प्रारम्भ होती है। कोषल के महान सेनापति सिंहमित्र कि कन्या मधूलिका का खेत उस वर्ष चुना गया था। राजा स्वर्ण हल चला रहे थे और मधूलिका बीज दे रही थी।
उत्सव के पूर्ण होने पर रीति के अनुसार मधूलिका को उसकी भूमि का चार गुना मूल्य स्वर्ण मुद्रायें कोषल नरेश के उपर न्योछावर करके भूमि पर बिखेर दीं। मंत्री ने इसे राजकीय अनुग्रह का अपमान मानते हुए मधूलिका को झिकडा और राजा कि भी भौहे चढ गयी किन्तु मधूलिका ने कहा कि वह अपने पित् पितामहों कि भूमि को बेचना अपराध मानती है। अतः वह उसका मुल्य स्वीकार नहीं कर सकती उत्सव कि समाप्ति पर मधूलिका अपनी भूमि कि चले जाने पर दुखी होकर एक वृक्ष कि छाया में जा बैठी।
मगध राज्य का एक राज कुमार इस उत्सव को देख रहा था वह मधूलिका कि सरल स्वाभिमानी मूर्ति पर मुग्ध हो गया उत्सव के दूसरे दिन उसने मधूलिका के समीप जाकर के उससे सहानुभूति प्रदर्षित कि और उसके सम्मुख पे्रम प्रस्ताव रखा किन्तु मधूलिका ने उसे निराष कर दिया।
मधूलिका दूसरो के खेतों में काम करके जीवन यापन कर रहीं थीं वर्षा की एक एकाकी में उसे अरूण के प्रथम मिलन और प्रस्ताव का ध्यान आ गया। उसे अरूण के प्रस्ताव को ठुकराने पर पष्चाताप हो रहा था। उन बीते हुए दिनों को लौटा लाने के लिये उसका मल व्याकुल हो उठा तभी उसकी झोपडी के बाहर किसी के आने कि आहट हुई और कौन कहने पर उसका तिरस्कार प्रेमी अरूण उसके सामने उपस्थित था। अरूण ने बताया कि उसे मगध से निष्कासित कि दिया गया था और वह अजीविका कि खेाज में कोषल आया हुआ था। इस वार मधूलिका उसे अस्वीकार नहीं कर सकी।
अरूण बहुत महत्वकांक्षी युवक था। उसने मधूलिका को राजरानी बनाने का सपना दिखाया वह कोषल राज्य पर अधिकार करने कि योजना बनाने लगा मधूलिका के प्रेम को उसने अनपी लक्ष्य प्राप्ति का साधन बनाया सिहकमत्र कि कन्या होन के नाते राजा का मधूलिका के प्रति विषेष स्नेहभाव था। अरूण ने मधूलिका को प्रेरित किया कि वह कोषल के श्रावस्ती दुर्ग के समीप नाले के पास की भूमि राजा से मांग ले। राजा कुछ हिचकिचाहट के पष्चात वह भ्ूामि उसे दे दी और अरूण वहां अपने भावी षडयन्त्र कि योजना बनाने लगा।
अरूण के प्रेम में विभेार मधूलिका ने भूमि तो अरूण को दिलवा दी किन्तु अपनी मातृभूमि को पराधीन कराने के षडयन्त्र में सम्मिलित होना उसे धिक्कारने लगा। वह घेार आत्म गिलानि में भर उठी। अपने पिता सिंहमित्र के सुयष को कलंकित करने कि कल्पना से ही वह कांप उठी अन्र्तद्वन्द में डूबी मधूलिका रात्री में राजपथ पर पगली कि भांति बढी जा रही थी। दूसरी ओर से सैनिक कि टुकडी के साथ आते सेनापति को उसने अरूण कि सारी योजना बता दी।
मधूलिका कि सूचना पर षीध््रा ही अरूण को बंदी बना लिया गया सिहंमित्र कि कन्या ने फिर एक वार कोषल की स्वाधीनता कि रक्षा कि थी राजा उसे पुरस्कृत करना चाहते थे। देष-प्रेम कि परीक्षा में मधूलिका उत्तीर्ण हो गयी और बन्दी और मृत्युदण्ड पाए अरूण के रूप मे उसका प्रेम उसकी परीक्षा चाहता था। मधूलिका ने प्रेम का भी मूल्य चुकाया उसने पुसरकार मांगा तेा मुझे भी मृत्युदण्ड मिले । और वह अपने प्रेमी अरूण के बगल में खडी हुई।