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| श्रीमद्‍भगवद्‍गीता | दूसरा अध्याय | सांख्य योग | हिंदी व् संस्कृत Srimad Bhagavadgita


दूसरा अध्याय- सांख्ययोग


 प्रिय पाठको पिछले अध्याय में आपने देखा की किस प्रकार अर्जुन धनुष  बाण छोड़कर ,मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता,पूर्ण बाते युद्ध न करने को कहने लगे इस अध्याय में आप देखेंगे की किस प्रकार भगवान श्री कृष्ण अर्जुन की कायरता के विषय किस प्रकार उसकी बातो का ज्ञान रुपी खंडन करते है 




( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )



संजय उवाच



तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥



भावार्थ : संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥



श्रीभगवानुवाच



कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।



भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥



क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥



भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥



अर्जुन उवाच



कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥



भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥



गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥



भावार्थ : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥



न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥



भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥



कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥



भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥



न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥



भावार्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥




संजय उवाच




एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥



भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥



तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥

भावार्थ : हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥

( सांख्ययोग का विषय )



श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

भावार्थ :  जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥

भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

भावार्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥

भावार्थ : असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

भावार्थ : नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥

भावार्थ : इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥
20॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥

भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

भावार्थ :  इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥

भावार्थ : क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥

भावार्थ : यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥

भावार्थ : कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥

( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )



स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥

भावार्थ : हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥



भावार्थ :  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्यते ॥

भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥

भावार्थ : इऔर जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥

भावार्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

( कर्मयोग का विषय )



एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

भावार्थ : हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥

भावार्थ : इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥



भावार्थ :  हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की 
परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

भावार्थ : सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥

भावार्थ : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥

भावार्थ : समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥

भावार्थ : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

भावार्थ : जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥

( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

अर्जुन उवाच



स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥

श्रीभगवानुवाच



प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥

भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥

भावार्थ :  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥

भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

भावार्थ : परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥

भावार्थ : अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

भावार्थ : न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥


इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

भावार्थ : जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥


                                                                                           शेष अगले अध्याय में

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श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ,पहला अध्याय हिंदी व् संस्कृत Srimad Bhagavadgita first chapter

 श्रीमद्‍भगवद्‍गीता


प्रिय पाठको आपके जीवन में हर परिस्थिति में अपने आप को मजबूती, शांत मन  ,आनंद भरा जीवन, सही मार्ग का चुनाब, आने वाली पीढ़ी को अच्छा ज्ञान ,मार्गदर्शक एक गुरु की तरह आपकी हमेशा मदद करेगी मैं श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता का हिंदी व् संस्कृत में मैंने बिस्तार पूर्वक वर्णन किया है आशा करता हूँ आपको इसे फायदा होगा इसे पढ़कर जीवन का आनंद उठाये  
                                                                                                            नमस्कार 


पहला अध्याय 

अथ प्रथमोऽध्यायः- अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥

भावार्थ : धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥

संजय उवाच

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥

भावार्थ : संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥

भावार्थ :  हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥

भावार्थ : इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥

भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥

भावार्थ : आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥

भावार्थ : और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥

भावार्थ : भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥

भावार्थ : इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥

( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन )

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥

भावार्थ :  कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥

भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ॥13॥

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः

भावार्थ : इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए॥14॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥

भावार्थ :  श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥

भावार्थ : कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥16॥

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥

भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥

भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

अर्जुन उवाचः


अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ 
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥


भावार्थ : भावार्थ :  हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥

भावार्थ : और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥

भावार्थ :  दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥

संजय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥

भावार्थ : संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥

तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

भावार्थ : इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा॥26 और 27वें का पूर्वार्ध॥

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।

भावार्थ : उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध॥
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )

अर्जुन उवाच

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । 
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28वें का उत्तरार्ध और 29॥

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥

भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥

भावार्थ :  हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥

भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

भावार्थ : हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥

भावार्थ : गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥

भावार्थ : हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥

भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥

भावार्थ : अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥

भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥

भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥

भावार्थ : हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥


भावार्थ : वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥

भावार्थ : इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं॥43॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥

भावार्थ : हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं॥44॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

भावार्थ : हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥45॥

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥

भावार्थ : यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥46॥

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

भावार्थ : संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥


                                                                                                           शेष अगले अध्याय में 

पानीपत की लड़ाई 6 दिसंबर 2019 ,Battle of paniat

Battle of paniat पानीपत की लड़ाई





6  दिसंबर 2019  को भारत में रिलीज होने वाली फिल्म पानीपत दोस्तों फ़िल्म देकने से पहले पानीपत की हिस्ट्री जरूर पढ़ के जाये इससे मूवी देखने का मज़्ज़ा 10  गुना बढ़ जायेगा

पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी 1761 को पानीपत में, दिल्ली से लगभग 97 किमी (60 मील) उत्तर में, मराठा साम्राज्य के एक उत्तरी अभियान बल और अफ़गानिस्तान के राजा, अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणकारी बलों के बीच, दो लोगों द्वारा समर्थित थी। भारतीय सहयोगी- रोहिलस नजीब-उद-दौला, दोआब क्षेत्र के अफगान और शुजा-उद-दौला-अवध के नवाब। मिलिटली, युद्ध ने अफगानों और रोहिलों के अब्दाली और नजीब-उद-दौला, दोनों जातीय अफगानों के नेतृत्व में भारी घुड़सवार सेना और घुड़सवार तोपखानों (ज़ंबूरक और जाज़ाइल) के खिलाफ मराठों की तोपखाने और घुड़सवार सेना को ढेर कर दिया। यह लड़ाई 18 वीं शताब्दी में लड़ी गई सबसे बड़ी और सबसे बड़ी घटना में से एक मानी जाती है, और संभवतः एक ही दिन में दो सेनाओं के बीच हुए क्लासिक गठन की लड़ाई में सबसे बड़ी संख्या में मौतें हुई हैं।



युद्ध की विशिष्ट साइट स्वयं इतिहासकारों द्वारा विवादित है, लेकिन अधिकांश इसे आधुनिक काल काला और सनौली रोड के आसपास कहीं हुआ मानते हैं। लड़ाई कई दिनों तक चली और इसमें 125,000 से अधिक सैनिक शामिल हुए। दोनों तरफ नुकसान और लाभ के साथ, संरक्षित झड़पें हुईं। अहमद शाह दुर्रानी के नेतृत्व में सेना कई मराठा झंडों को नष्ट करने के बाद विजयी हुई। दोनों पक्षों के नुकसान की सीमा इतिहासकारों द्वारा भारी विवादित है, लेकिन यह माना जाता है कि 60,000-70,000 के बीच लड़ाई में मारे गए थे, जबकि घायल और कैदियों की संख्या में काफी भिन्नता थी। एकल सर्वश्रेष्ठ प्रत्यक्षदर्शी क्रॉनिकल के अनुसार- शुजा-उद-दौला के काशी राज द्वारा बाखर - युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों को ठंडे खून से सना हुआ था।  ग्रांट डफ ने अपने इतिहास के मराठों में इन नरसंहारों से बचे एक साक्षात्कार को शामिल किया और आम तौर पर इस संख्या की पुष्टि की। शेजवलकर, जिनके मोनोग्राफ पानीपत 1761 को अक्सर लड़ाई पर सबसे अच्छा माध्यमिक स्रोत के रूप में माना जाता है, का कहना है कि "युद्ध के दौरान और बाद में 100,000 मराठा (सैनिक और गैर-लड़ाके) से कम नहीं।"
लड़ाई का परिणाम उत्तर में आगे मराठा अग्रिमों को रोकना और लगभग दस वर्षों तक उनके क्षेत्रों को अस्थिर करना था। इस अवधि को पेशवा माधवराव के शासन द्वारा चिह्नित किया जाता है, जिन्हें पानीपत में हार के बाद मराठा वर्चस्व के पुनरुद्धार का श्रेय दिया जाता है। 1771 में, पानीपत के दस साल बाद, उसने एक अभियान में उत्तरी भारत में एक बड़ी मराठा सेना को भेजा, जो उस क्षेत्र में मराठा वर्चस्व को फिर से स्थापित करने और दुर्दम्य शक्तियों को दंडित करने के लिए थी, जो या तो अफगानों के साथ थी, जैसे कि रोहिल्ला, या पानीपत के बाद मराठा वर्चस्व को हिला दिया था। लेकिन उनकी सफलता कम थी। 28 वर्ष की आयु में माधवराव की असामयिक मृत्यु से क्रोधित होकर, मराठा प्रमुखों के बीच जल्द ही घुसपैठ हो गई, और वे अंततः 1818 में अंग्रेजों के हाथों अपना अंतिम झटका मिला। 27 साल के मुगल-मराठा युद्ध (1680-1707) ने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को मराठा साम्राज्य का तेजी से क्षेत्रीय नुकसान पहुंचाया। हालांकि 1707 में उनकी मृत्यु के बाद, औरंगज़ेब के बेटों के बीच मुगल उत्तराधिकार युद्ध के बाद यह प्रक्रिया उलट गई। 1712 तक, मराठों ने जल्दी से अपनी खोई हुई जमीन को फिर से बेचना शुरू कर दिया। पेशवा बाजी राव के अधीन, गुजरात, मालवा और राजपुताना मराठा नियंत्रण में आए। अंत में, 1737 में, बाजी राव ने दिल्ली के बाहरी इलाके में मुगलों को हरा दिया और मराठा नियंत्रण के तहत आगरा के दक्षिण में पूर्व मुग़ल क्षेत्रों के अधिकांश भाग को लाया। बाजी राव के बेटे बालाजी बाजी राव ने 1758 में पंजाब पर आक्रमण करके मराठा नियंत्रण के क्षेत्र में और वृद्धि की।
रघुनाथराव का पेशवा को पत्र, 4 मई 1758

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“लाहौर, मुल्तान और अटैक के पूर्वी हिस्से में अन्य सबह हमारे हिस्से के तहत सबसे अधिक भाग के लिए हैं, और वे स्थान जो हमारे शासन में नहीं आए हैं, हम जल्द ही हमारे अधीन लाएंगे। अहमद शाह दुर्रानी के बेटे तैमूर शाह दुर्रानी और जहान खान का हमारे सैनिकों ने पीछा किया, और उनके सैनिकों ने पूरी तरह से लूट लिया। दोनों अब कुछ टूटे हुए सैनिकों के साथ पेशावर पहुंच गए हैं ... इसलिए अहमद शाह दुर्रानी कुछ 12-14 हजार टूटी हुई सेना के साथ कंधार लौट आए हैं। इस प्रकार सभी अहमद के खिलाफ बढ़ गए हैं जिन्होंने इस क्षेत्र पर नियंत्रण खो दिया है। हमने कंधार तक अपना शासन बढ़ाने का फैसला किया है।इसने मराठों को अहमद शाह अब्दाली (जिसे अहमद शाह दुर्रानन के नाम से भी जाना जाता है) के दुर्रानी साम्राज्य के साथ सीधे टकराव में लाया। 1759 में उन्होंने पश्तून और बलूच जनजातियों से एक सेना खड़ी की और पंजाब में छोटे मराठा सरदारों के खिलाफ कई लाभ कमाए। उसके बाद उन्होंने अपने भारतीय सहयोगियों-गंगा दोआब के रोहिला अफ़गानों-मराठों के खिलाफ एक व्यापक गठबंधन बनाया।
सदाशिवराव भाऊ की कमान में मराठों ने 45,000-60,000 के बीच एक सेना को इकट्ठा करके जवाब दिया, जिसमें लगभग 200,000 गैर-लड़ाके थे, जिनमें से कई उत्तरी भारत में हिंदू तीर्थ स्थलों की तीर्थयात्रा करने के इच्छुक तीर्थयात्री थे। मराठों ने 14 मार्च 1760 को पटदूर से अपने उत्तर की यात्रा शुरू की। दोनों पक्षों ने अवध के नवाब, शुजा-उद-दौला को अपने शिविर में लाने की कोशिश की। जुलाई के अंत तक शुजा-उद-दौला ने अफगान-रोहिला गठबंधन में शामिल होने का निर्णय लिया, जो "इस्लाम की सेना" के रूप में माना जाता था। यह मराठों के लिए रणनीतिक रूप से एक बड़ा नुकसान था, क्योंकि शुजा ने उत्तर भारत में लंबे अफगान प्रवास के लिए बहुत आवश्यक वित्त प्रदान किया था। यह संदेह है कि क्या अफगान-रोहिल्ला गठबंधन के पास शूजा के समर्थन के बिना मराठों के साथ अपने संघर्ष को जारी रखने का साधन होगा?
14 जनवरी 1761 को सुबह होने से पहले, मराठा सैनिकों ने शिविर में अंतिम शेष अनाज के साथ अपना उपवास तोड़ा और युद्ध के लिए तैयार हुए। वे खाइयों से निकले, तोपखाने को अपनी बिछाई हुई रेखाओं, अफगानों से 2 किमी की दूरी पर स्थिति में धकेल दिया। यह देखते हुए कि लड़ाई जारी थी, अहमद शाह ने अपनी 60 चिकनी-बोर की तोप को तैनात किया और आग लगा दी।
प्रारंभिक हमले का नेतृत्व इब्राहिम खान के नेतृत्व में मराठा वामपंथी ने किया, जिन्होंने रोहिल्ला और शाह पासंद खान के खिलाफ अपनी पैदल सेना को आगे बढ़ाया। मराठा तोपखाने से पहला सालोस अफगानों के सिर पर चढ़ गया और उसने बहुत कम नुकसान किया। फिर भी, नजीब खान के रोहिलों द्वारा मराठा गेंदबाजों और पुलिसकर्मियों द्वारा तोड़ा गया पहला अफगान हमला, साथ ही साथ गार्डी की एक टुकड़ी, जिसमें गार्डी के मस्कटियर आर्टिलरी पोजिशन के करीब तैनात थे। दूसरे और बाद के सालोस को बिंदु-रिक्त सीमा पर अफगान रैंकों में निकाल दिया गया था। परिणामी नरसंहार ने अगले तीन घंटों के लिए युद्ध के मैदान इब्राहिम के हाथों में छोड़ते हुए, रोहिलों को अपनी लाइनों में वापस भेज दिया, जिसके दौरान 8,000 गार्डी के मुस्तैदियों ने लगभग 12,000 रोहिलों को मार डाला।
दूसरे चरण में, भाऊ ने खुद को अफगान विजियर शाह वली खान के नेतृत्व में वामपंथी केंद्र अफगान सेना के खिलाफ आरोप का नेतृत्व किया। हमले की सरासर ताकत ने लगभग अफगान लाइनों को तोड़ दिया, और अफगान सैनिकों ने भ्रम की स्थिति में अपने पद छोड़ना शुरू कर दिया। अपनी सेना को रैली करने की पूरी कोशिश में, शाह वली ने शुजा उद दौला से सहायता की अपील की। हालांकि, नवाब अपनी स्थिति से नहीं टूटे, प्रभावी रूप से अफगान बल के केंद्र को विभाजित कर दिया। भाऊ की सफलता के बावजूद, अति-उत्साह के आरोप के कारण, हमले ने पूरी सफलता हासिल नहीं की, क्योंकि आधे-अधूरे मराठा आरोहण समाप्त हो चुके थे। \

सिंधिया के अधीन मराठों ने नजीब पर हमला किया। नजीब ने सफलतापूर्वक रक्षात्मक लड़ाई लड़ी, लेकिन सिंधिया की सेनाओं को रोककर रखा। दोपहर तक ऐसा लगा जैसे भाऊ एक बार फिर मराठों के लिए जीत हासिल करेगा। अफ़गान के बायें हिस्से में अभी भी अपना कब्ज़ा है, लेकिन केंद्र दो में कट गया था और दायां लगभग नष्ट हो गया था। अहमद शाह ने अपने डेरे से लड़ाई की किस्मत देखी थी, जो उसकी बाईं ओर मौजूद अखंड सेनाओं द्वारा संरक्षित थी। उन्होंने अपने अंगरक्षकों को अपने शिविर से 15,000 आरक्षित सैनिकों को बुलाने के लिए भेजा और उन्हें अपने गुर्गों के सामने एक स्तंभ के रूप में व्यवस्थित किया (जो कि कैज़िलबैश) और 2,000 कुंडा-घुड़सवार शटरनालों या उष्ट्रासन-तोपों - ऊंटों की पीठ पर बैठा था।
शतदल, ऊंटों पर अपनी स्थिति के कारण, मराठा घुड़सवार सेना में अपने स्वयं के पैदल सैनिकों के सिर पर एक व्यापक साल्व फायर कर सकते थे। मराठा घुड़सवार अफगानों के कस्तूरी और ऊंट-घुड़सवार कुंडा तोपों का सामना करने में असमर्थ थे। उन्हें सवार होने के बिना निकाल दिया जा सकता है और विशेष रूप से तेजी से चलने वाली घुड़सवार सेना के खिलाफ प्रभावी था। इसलिए, अब्दाली ने अपने सभी अंगरक्षकों को शिविर के बाहर सभी समर्थ पुरुषों को उठाने और उन्हें सामने भेजने के आदेश के साथ भेजा। उसने अग्रिम पंक्ति के सैनिकों को दंडित करने के लिए 1,500 और भेजे, जिन्होंने लड़ाई से भागने का प्रयास किया और किसी भी सैनिक की दया के बिना हत्या की, जो लड़ाई में वापस नहीं आएगा। ये अतिरिक्त सैनिक, अपने आरक्षित सैनिकों में से 4,000 के साथ, दाहिनी ओर रोहिलों की टूटी हुई रैंकों का समर्थन करने के लिए गए। रिजर्व के शेष, 10,000 मजबूत, शाह वली की सहायता के लिए भेजे गए थे, फिर भी मैदान के केंद्र में भाऊ के खिलाफ असमान रूप से श्रम कर रहे थे। इन मेल किए गए योद्धाओं को विज़ीर के साथ घनिष्ठ क्रम में और पूर्ण सरपट पर चार्ज करना था। जब भी वे दुश्मन के सामने आरोप लगाते हैं, स्टाफ के प्रमुख और नजीब को निर्देश दिया गया था कि वे दोनों तरफ से गिरें।
फायरिंग लाइन में अपने स्वयं के लोगों के साथ, मराठा तोपखाने शहतुरों और घुड़सवार सेना के आरोप का जवाब नहीं दे सके। लगभग 14:00 बजे हाथ से हाथ की लड़ाई शुरू होने से पहले 7,000 मराठा घुड़सवार सेना और पैदल सेना को मार दिया गया था। 16:00 बजे तक, थका हुआ मराठा पैदल सेना, ताजा अफगान भंडार से हमले के हमले से पीड़ित होने लगा, जो बख्तरबंद चमड़े की जैकेटों द्वारा संरक्षित था
सदाशिवराव भाऊ, जिन्होंने अपनी आगे की पंक्तियों को कम होते देख, कोई भी आरक्षित नहीं रखा था, लड़ाई के बीच में विश्वासराव को गायब होते देख और पीछे देखने वाले नागरिकों को लगा कि उनके पास अपने हाथी से नीचे आने और लड़ाई का नेतृत्व करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इसका लाभ उठाकर, कुंजपुरा की घेराबंदी के दौरान, पहले मराठों द्वारा कब्जा कर लिया गया अफगान सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। कैदियों ने अपने हरे रंग के बेल्टों को उकेरा और उन्हें दुर्रानी साम्राज्य की सेना को लगाने के लिए पगड़ी के रूप में पहना और भीतर से हमला करना शुरू कर दिया। इससे मराठा सैनिकों में भ्रम और भारी बाधा पैदा हुई, जिन्होंने सोचा कि दुश्मन ने पीछे से हमला किया था। मराठा सेना के कुछ जवानों ने देखा कि उनका जनरल अपने हाथी से गायब हो गया था, घबरा गया और अव्यवस्था में तितर-बितर हो गया।
अब्दाली ने अपनी सेना के एक हिस्से को गार्डिस को घेरने और मारने का काम दिया था, जो मराठा सेना के सबसे बाएं हिस्से में थे। भाऊसाहेब ने विट्ठल विंचुरकर (1500 घुड़सवारों के साथ) और दामाजी गायकवाड़ (2500 घुड़सवारों के साथ) को गार्डिस की रक्षा करने का आदेश दिया था। हालांकि, गार्डियों को दुश्मन सैनिकों पर अपनी तोप की आग को निर्देशित करने के लिए कोई मंजूरी नहीं मिलने के बाद, उन्होंने अपना धैर्य खो दिया और रोहिलों से लड़ने का फैसला किया। इस प्रकार, उन्होंने अपनी स्थिति को तोड़ दिया और रोहिलों पर बाहर चले गए। रोहिल्ला राइफलमैन ने मराठा घुड़सवार सेना पर सटीक गोलीबारी शुरू कर दी, जो केवल तलवारों से लैस थी। इससे रोहिलों को गार्डियों को घेरने और मराठा केंद्र को बाहर करने का मौका मिला, जबकि शाह वली ने मोर्चे पर हमला किया। इस प्रकार गार्डिस को रक्षाहीन छोड़ दिया गया और एक-एक कर गिरने लगे।
विश्वासराव को पहले ही सिर में गोली लगने से मौत हो चुकी थी। भाऊ और उनका शाही रक्षक अंत तक लड़ते रहे, मराठा नेता के तीन घोड़े उनके नीचे से निकले। इस अवस्था में, होल्कर, लड़ाई को महसूस करते हुए हार गए, मराठा से टूट गए और पीछे हट गए। मराठा फ्रंट लाइनें काफी हद तक बरकरार रहीं, उनकी कुछ तोपखाने इकाइयाँ सूर्यास्त तक लड़ती रहीं। एक रात के हमले का शुभारंभ नहीं करने का चयन करते हुए, कई मराठा सैनिक उस रात भाग निकले। भाऊ की पत्नी पार्वतीबाई, जो मराठा शिविर के प्रशासन में सहायता कर रही थी, अपने अंगरक्षक जानू भिन्तदा के साथ पुणे भाग गई। कुछ 15,000 सैनिक ग्वालियर पहुँचने में कामयाब रहे।
दुर्रानी के पास मराठों के साथ-साथ दोनों में संख्यात्मक श्रेष्ठता थी। संयुक्त अफगान सेना मराठों की तुलना में बहुत बड़ी थी। यद्यपि मराठों की पैदल सेना यूरोपीय लाइनों के साथ आयोजित की गई थी और उनकी सेना के पास उस समय की कुछ सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी निर्मित बंदूकें थीं, उनकी तोपें स्थिर थीं और तेजी से बढ़ते अफगान बलों के खिलाफ गतिशीलता में कमी थी। अफगानों की भारी घुड़सवार तोप युद्ध के मैदान में मराठों के प्रकाश तोपखाने की तुलना में बहुत बेहतर साबित हुई।  अन्य हिंदू राजाओं में से कोई भी अब्दाली से लड़ने के लिए सेना में शामिल नहीं हुआ। अब्दाली के सहयोगी, नजीब, शुजा और रोहिल्ला उत्तर भारत को अच्छी तरह से जानते थे। वह हिंदू नेताओं, विशेष रूप से जाटों और राजपूतों, और अवध के नवाब जैसे पूर्व प्रतिद्वंद्वियों के साथ कूटनीतिक, धर्म के नाम पर उनसे अपील करता था।
इसके अलावा, वरिष्ठ मराठा प्रमुख लगातार एक दूसरे से टकराते रहे। प्रत्येक के पास अपने स्वतंत्र राज्यों को तराशने की महत्वाकांक्षा थी और आम दुश्मन के खिलाफ लड़ने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनमें से कुछ ने पिच की गई लड़ाई के विचार का समर्थन नहीं किया और दुश्मन के सिर को चार्ज करने के बजाय गुरिल्ला रणनीति का उपयोग करके लड़ना चाहते थे। मराठा अपनी राजधानी पुणे से 1000 मील दूर एक जगह पर अकेले लड़ रहे थे।
रघुनाथराव को सेना को मजबूत करने के लिए उत्तर में जाना चाहिए था। रघुनाथराव ने बड़ी मात्रा में धन और सेना मांगी, जिसे सदाशिवराव भाऊ, उनके चचेरे भाई और पेशवा के दीवान ने अस्वीकार कर दिया, इसलिए उन्होंने जाने से मना कर दिया। सदाशिवराव भाऊ वहाँ पर मराठा सेना के सेनापति बनाए गए, जिनके अधीन पानीपत की लड़ाई लड़ी गई थी। मल्हारराव होलकर या रघुनाथराव के बजाय सदाशिवराव भाऊ को सुप्रीम कमांडर नियुक्त करने का पेशवा का निर्णय दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुआ, क्योंकि सदाशिवराव उत्तर भारत में राजनीतिक और सैन्य स्थिति से पूरी तरह अनभिज्ञ थे।
अगर होल्कर युद्ध के मैदान में बने रहते, तो मराठा हार में देरी होती, लेकिन टालमटोल नहीं। युद्ध में अहमद शाह की श्रेष्ठता को नकारा जा सकता था यदि मराठों ने पंजाब और उत्तर भारत में मल्हारराव होल्कर की सलाह के अनुसार अपने पारंपरिक गणिमी कावा, या गुरिल्ला युद्ध का संचालन किया होता। अब्दाली भारत में अपनी क्षेत्र की सेना को अनिश्चित काल तक बनाए रखने की स्थिति में नहीं था।
अफ़ग़ान घुड़सवार और पिकनिक पानीपत की गलियों से होकर भागे, जिससे हजारों मराठा सैनिक और नागरिक मारे गए। पानीपत की गलियों में शरण लेने वाली महिलाओं और बच्चों को गुलाम के रूप में अफगान शिविरों में वापस भेज दिया गया था। 14 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को उनकी अपनी माताओं और बहनों के समक्ष रखा गया। अफ़गान अधिकारी जो युद्ध में अपने परिजनों को खो चुके थे, उन्हें अगले दिन पानीपत और आसपास के इलाके में 'बेवफ़ा' हिंदुओं का नरसंहार करने की अनुमति दी गई थी। उन्होंने अपने शिविरों के बाहर सिर के कटे हुए घावों की जीत की व्यवस्था की। एकल सर्वश्रेष्ठ प्रत्यक्षदर्शी क्रॉनिकल के अनुसार - शुजा-उद-दौला के दीवान काशी राज द्वारा बाखर - युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों को ठंडे खून से सना हुआ था। बॉम्बे गजट के एक रिपोर्टर हैमिल्टन के अनुसार, पानीपत शहर में लगभग आधा मिलियन मराठी लोग मौजूद थे और वह 40,000 कैदियों का आंकड़ा देते हैं जैसा कि अफगानों द्वारा निष्पादित किया गया था भागती हुई मराठा महिलाओं में से कई जोखिम बलात्कार और अपमान के बजाय पानीपत के कुएं में कूद गईं।
सभी कैदियों को बैलगाड़ियों, ऊंटों और हाथियों को बांस के पिंजरे में ले जाया गया।
“दुखी कैदियों को लंबी लाइनों में परेड किया गया था, थोड़ा-सा पका हुआ अनाज और पानी पिलाया गया था, और सिर कलम किया गया था… और जो महिलाएं और बच्चे बच गए थे, उन्हें दास के रूप में छोड़ दिया गया था
विश्वासराव और भाऊ के शव मराठों द्वारा बरामद किए गए और उनकी रीति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया। भाऊ की पत्नी पार्वतीबाई को भाऊ के निर्देशानुसार होलकर ने बचा लिया और आखिर में पुणे लौट आए।
पेशवा बालाजी बाजी राव, अपनी सेना की स्थिति के बारे में बेख़बर, हार के बारे में सुनकर नर्मदा को सुदृढीकरण के साथ पार कर रहे थे। वह पुणे लौट आया और पानीपत में पराजय के सदमे से कभी उबर नहीं पाया। सुरेश शर्मा के अनुसार, "यह बालाजी बाजीराव की खुशी का प्यार था जो पानीपत के लिए जिम्मेदार था। उन्होंने 27 दिसंबर तक अपनी दूसरी शादी का जश्न मनाते हुए पैठान में देरी की, जब बहुत देर हो चुकी थी।"
जानकीजी सिंधिया को कैदी बना लिया गया और नजीब के कहने पर अंजाम दिया गया। इब्राहिम खान गार्दी को क्रोधित और अफगान सैनिकों द्वारा मार डाला गया। मराठा पानीपत में हुए नुकसान से पूरी तरह उबर नहीं पाए, लेकिन वे भारत में प्रमुख सैन्य शक्ति बने रहे और 10 साल बाद दिल्ली को फिर से हासिल करने में सफल रहे। हालाँकि, 1800 के शुरुआती दौर में पानीपत के लगभग 50 साल बाद, पूरे भारत में उनका दावा तीन एंग्लो-मराठा युद्धों के साथ समाप्त हो गया।
सूरज मल के अधीन जाटों को पानीपत की लड़ाई में भाग नहीं लेने से काफी लाभ हुआ। उन्होंने मराठा सैनिकों और नागरिकों को काफी सहायता प्रदान की जो लड़ाई से बच गए।
अहमद शाह की जीत ने उन्हें अल्पावधि में उत्तर भारत का निर्विवाद गुरु बना दिया। हालाँकि, उनके गठबंधन ने अपने सेनापतियों और अन्य राजकुमारों के बीच झड़पों में तेजी से वृद्धि की, वेतन को लेकर अपने सैनिकों की बढ़ती बेचैनी, बढ़ती भारतीय गर्मी और इस खबर के आगमन पर कि मराठों ने दक्षिण में एक और 100,000 लोगों को अपने नुकसान और बचाव का बदला लेने के लिए संगठित किया था कैदी।
हालाँकि अब्दाली ने लड़ाई जीत ली, लेकिन उसके पक्ष में भारी हताहत हुए और मराठों के साथ शांति की मांग की। अब्दाली ने नानासाहेब पेशवा को पत्र भेजा (जो दिल्ली की ओर बढ़ रहा था, अब्दाली के खिलाफ भाऊ से जुड़ने की बहुत धीमी गति से) पेशवा से अपील करते हुए कहा कि वह वह नहीं था जिसने भाऊ पर हमला किया था और खुद को सही ठहरा रहा था। अब्दाली ने 10 फरवरी 1761 को पेशवा को लिखे अपने पत्र में लिखा था: हमारे बीच दुश्मनी होने का कोई कारण नहीं है। आपके पुत्र विश्वासराव और आपके भाई सदाशिवराव युद्ध में मारे गए, दुर्भाग्यपूर्ण था। भाऊ ने लड़ाई शुरू की, इसलिए मुझे अनिच्छा से वापस लड़ना पड़ा। फिर भी मुझे उनकी मृत्यु पर खेद है। कृपया पहले की तरह दिल्ली की अपनी संरक्षकता जारी रखें, क्योंकि मेरा कोई विरोध नहीं है। केवल पंजाब को तब तक रहने दो जब तक कि सुतलाज हमारे साथ नहीं है। दिल्ली के सिंहासन पर शाह आलम को फिर से स्थापित करें जैसा आपने पहले किया था और हमारे बीच शांति और दोस्ती हो, यह मेरी प्रबल इच्छा है। मुझे वह इच्छा प्रदान करें। "
इन परिस्थितियों ने अब्दाली को जल्द से जल्द भारत छोड़ने पर विचार किया, यह देखते हुए कि एक और लड़ाई की आवश्यकता नहीं थी। प्रस्थान करने से पहले, उन्होंने शाह आलम द्वितीय को सम्राट के रूप में मान्यता देने के लिए एक रॉयल फ़रमान (आदेश) (भारत के क्लाइव सहित) के माध्यम से भारतीय प्रमुखों को आदेश दिया।
नवाब और रियासतों के पतन से पहले 1765 में भारत का नक्शा, मुख्य रूप से सम्राट (मुख्य रूप से हरे रंग में) से संबद्ध था।
अहमद शाह ने भी नजीब-उद-दौला को मुगल सम्राट के लिए अपूरणीय रेजिमेंट नियुक्त किया। इसके अलावा, नजीब और मुनीर-उद-दौला ने चार लाख रुपये की वार्षिक श्रद्धांजलि, मुगल राजा की ओर से अब्दाली को भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की यह अहमद शाह का उत्तर भारत का अंतिम प्रमुख अभियान था, क्योंकि वह सिखों के विद्रोह का शिकार हो गया था।
शाह शुजा की सेनाओं (फारसी सलाहकारों सहित) ने हिंदू सेनाओं के खिलाफ खुफिया जानकारी एकत्र करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई और सैकड़ों हताहतों की संख्या में घात लगाने में कुख्यात थे।
पानीपत की लड़ाई के बाद रोहिलों की सेवाओं को नवाब फैज -ुल्लाह खान और जलेसर और फिरोजाबाद के नवाब सादुल्लाह खान को शिकोहाबाद के अनुदान से पुरस्कृत किया गया। नजीब खान एक प्रभावी शासक साबित हुआ। हालाँकि, 1770 में उनकी मृत्यु के बाद, रोहिल्ला को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हरा दिया था। नजीब की मृत्यु 30 अक्टूबर 1770 को हुई थी
मराठों द्वारा प्रदर्शित वीरता की प्रशंसा अहमद शाह अब्दाली ने की थी।
“मराठों ने सबसे बड़ी वीरता के साथ संघर्ष किया जो अन्य जातियों की क्षमता से परे था। ये दकियानूसी खून-खराबा शानदार कामों में लड़ने और करने में कम नहीं हुआ। लेकिन अंतत: हम अपनी बेहतर रणनीति और दिव्य भगवान की कृपा से जीत गए। "
पानीपत की तीसरी लड़ाई में युद्ध के एक ही दिन में भारी संख्या में मौतें और घायल हुए। यह 1947 में पाकिस्तान और भारत के निर्माण तक स्वदेशी दक्षिण एशियाई नेतृत्व वाली सैन्य शक्तियों के बीच अंतिम बड़ी लड़ाई थी।
अपने राज्य को बचाने के लिए, मुगलों ने एक बार फिर से पक्ष बदले और अफगानों का दिल्ली में स्वागत किया। मुग़ल भारत के छोटे क्षेत्रों पर नाममात्र के नियंत्रण में रहे, लेकिन फिर कभी बल में नहीं रहे। साम्राज्य आधिकारिक तौर पर 1857 में समाप्त हो गया था, जब इसके अंतिम सम्राट, बहादुर शाह II पर आरोप लगाया गया था कि वे सिपाही विद्रोह में शामिल थे और निर्वासित थे।
युद्ध के कारण मराठाओं के विस्तार में देरी हुई, और प्रारंभिक हार से मराठा मनोबल को हुए नुकसान के कारण साम्राज्य के भीतर तोड़-फोड़ हुई। उन्होंने अगली पेशवा माधवराव प्रथम के तहत अपनी स्थिति को कम कर लिया और उत्तर के नियंत्रण में वापस आ गए, अंत में 1771 तक दिल्ली पर कब्जा कर लिया।
हालांकि, ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों से लगातार घुसपैठ और बाहरी आक्रामकता के कारण माधवराव की मृत्यु के बाद, उनके साम्राज्य के अधिकार केवल 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ तीन युद्धों के बाद समाप्त हो गए।
इस बीच, सिखों-जिनके विद्रोह का मूल कारण अहमद ने आक्रमण किया था - बड़े पैमाने पर लड़ाई से अछूते रह गए थे। उन्होंने जल्द ही लाहौर वापस ले लिया। मार्च 1764 में जब अहमद शाह वापस लौटे तो उन्हें अफगानिस्तान में विद्रोह के कारण केवल दो सप्ताह के बाद अपनी घेराबंदी तोड़ने के लिए मजबूर किया गया। वह 1767 में फिर से लौटे लेकिन कोई निर्णायक लड़ाई जीतने में असमर्थ थे। अपने स्वयं के सैनिकों द्वारा भुगतान नहीं किए जाने की शिकायत के साथ, वह अंततः सिख खालसा राज के क्षेत्र को खो दिया, जो 1849 तक नियंत्रण में रहा, जब इसे ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा कब्जा कर लिया गया था।


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मन को प्रतिदिन  दुखो का स्मरण कराओ  




जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दुखो , से भरा पड़ा है । गभर्वास का दुख, जन्मते समय का दुख, बचपन का दुख, बीमारी का दुख, बुढ़ापे का दुख तथा मृत्यु का दुख आदि दुखो की परम्परा चलती रहती है । गरुु नानक कहते है : 
“नानक ! दुखिया सब संसार ।” 

मन को प्रतिदिन इन सब दःुखो का स्मरण  कराइए । मन को अस्पताल  के रोगीजन िदखाइए,शबो को  िदखाइए, मशान-भूमि  में घू-घू जलती हुई िचताएँ िदखाइए । उसे कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक िदन मिटटी  में िमल जाना है अथवा अगनि में खाक हो जाना है । िवषय-भोगों के पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो दूसरी योनिओ  में भी िमलते है  । मनुष्य -जन्म इन क्षुद्र वस्तुओ  के िलए नहीं है । यह तो अमूल्य  अवसर है । मनुष्य -जन्म में ही परुषार्थ  साध सकते है  । यदि  इसे बर्बाद  कर देगा तो बारंबार ऎसी देह नहीं िमलेगी । इसिलए ईश्वर का -भजन कर, ध्यान कर, सत्सगं सुन  और संतो  की शरण में जा । तेरी जन्मों की भखू िमट जायेगी । क्षुद्र विषय -सुखों के पीछे भागने की आदत छूट जायेगी । तू आनंद के महासागर में ओतप्रोत  होकर आनंदरुप हो जायेगा ।

                        


अरे मन ! तू ज्योति स्वरुप   है । अपना मूल  पहचान । चौरासी लाख के चक्कर से छूटने का यह अवसर तुझे िमला है और तू मुट्ठीभर  चनों के िलए इसे नीलाम कर देता है, पागल ।
इस प्रकार मन को समझाने से मन स्वतः  ही समर्पण कर देगा । तत्पश्चात  एक आज्ञाकारी  व बुद्दिमान  बच्चे के समान आपके बताये हुए मार्ग  पर खुशी-खुशी चलेगा ।
िजसने अपना मन जीत िलया, उसने समस्त  जगत को जीत िलया । वह राजाओं का राजा है, सम्राट  है, सम्राटो का भी सम्राट है ।
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अब सीधा सीधा न चलूँगा तो मेरी दुदर्शा होगी । Mind is the reason for human bondage and salvation

मनः एव मनुंशणां कारणं बंधमोक्षयोः ।  

मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । शुभ संकल्प और पवित्र  कार्य  करने से मनुष्य शुद्ध  होता है, निर्मल  होता है तथा मोक्ष मार्ग पर  ले जाता है । यही मन अशुभ संकल्प और पापपूर्ण  आचरण से अशुद्ध  हो जाता है तथा जडता लाकर संसार के बन्धन में बांधता है । रामायण में ठीक  ही कहा है

निर्मल  मन जन सो मोहि  पावा । मोही कपट छल छिद्र  न भावा ।   

                                    प्रतिदिन  मन के कान  खिचिये    




 यदि आप अपने कल्याण की इच्छा रखते हो तो आपको अपने मन को समझाना चाहिए । इसे उलाहने देकर समझाना चािहएः “अरे चंचल मन ! अब शांत होकर बैठ । बारंबार इतना बहिर्मुख  होकर किसलिए  परेशान करता है ? बाहर क्या कभी िकसी को सखु िमला है ? सुख  जब भी िमला है तो हर िकसी को अंदर ही िमला है । िजसके पास सम्पूर्ण भारत का साम्राज्य  था, समस्त  भोग, वैभव थे ऎसे सम्राट भरथरी को भी बाहर सुख  न िमला और तू बाहर के पदार्थ  के िलए दीवाना हो रहा है ? तू भी भरथरी और राजकुमार उद्दालक की भाती विवेक  करके आनंदस्वरूप की ओर क्यों नहीं लौटता ?” राजकुमार उद्दालक युवावअवस्था  में ही िववेकवान होकर पर्वतो  की गुफाओं में जा-जाकर अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू किसलिए मुझे  अधिक भटकाता है ? तू कभी सुगंध के पीछे बावरा हो जाता है, कभी स्वाद  के िलए तडपता है, कभी संगीत के पीछे आकर्षित  हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर िदया । क्षणिक विषयसुख  देकर तूने मेरा आनंद मय जीवन छीन  िलया है, मझुे िवषय-लोलपु बनाकर तूने मेरा बल, बुध्दि , तेज, स्वास्थ्य , आयु और उत्साह क्षीण कर िदया है ।”  राजकुमार उद्दालक पर्वत की  गुफा में बैठे मन को समझाते है “अरे मन ! तू बार-बार िवषय-सखु और सांसारिक  सम्बन्धों की ओर दौडता है, पत्नी  बच्चे और मित्र आदि  का सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता िक ये सब क्या सदैव रहनेवाले है  ? िजन्हें तू प्रत्येक  जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छूट ही जायेंगे िफर भी तू इस जन्म में भी उन्हीं का िवचार करता है ? तू िकतना मुर्ख  है ? िजसका कभी िवयोग नहीं होता, जो सदैव तेरे साथ है, जो आनंद स्वरुप  है, 



ऎसे आत्मदेव के ध्यान में तू क्यों 
नहीं डूबता ? इतना समय और जीवन तूने बर्बाद  कर िदया । अब तो शांत हो बैठ ! थोडी तो पुण्य की कमाई करने दे ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके मने अधम संकल्प  िकये, कुसगं िकये, पाप िकये ।अब तो बुद्दिमान  बन, पुरानी आदत छोड । अन्तर्मुख  हो ।”  उद्दालक की भांित इसी प्रकार  एक बार नहीं परन्तु प्रतिदिन  मन के कान खींचने चाहिए  । मन पलीत है । इस पर कभी विश्वास  न करें । आपके कथनानुसार मन चलता है या नहीं, इस पर िनरन्तर दृस्टि  रखें । इस पर चौबीसों घण्टे जाग्रत  पहरा रखें । मन को समझाने के िलए िववेक-िवचाररुपी डंडा सतत आपके हाथ में रहना चाहिए  । नीति और मयार्दा के विरुद्ध मन यदि  कोई भी संकल्प  करे तो उसे दण्ड दो । उसका खाना बंद कर दो । तभी वह समझेगा की मैं किसी मर्द के हाथ पद गया हूँ  ि । अब सीधा सीधा न चलूँगा तो मेरी दुदर्शा होगी ।   

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